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सुमित्रा नंदन पंत: जीवन परिचय, कविताएँ

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सुमित्रानंदन पंत जी का जीवन परिचय

सुमित्रा नंदन पंत का जन्म सन् 1900 में अल्मोड़ा (उत्तरांचल) जिले के कौसानी नामक स्थान में हुआ था। इनका मूल नाम गोसाईं दत्त था। पंत जी हिंदी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्ति छायावाद के महत्त्वपूर्ण स्तम्भ माने जाते हैं। पंत जी का जन्म स्थान प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण है, इसलिए उनकी कविताओं पर प्रकृति के अनुराग का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। पंत जी में वास्तविकता के प्रतिकूल और दारुण रूप के अभाव का कारण भी कुछ सीमा तक प्रकृति के प्रभाव को माना जाता है। उनके मन में प्रकृति के प्रति इतना मोह पैदा हो गया था कि ये जीवन की नैसर्गिक व्यापकता और अनेकरूपता में पूर्ण रूप से आसक्त न हो सके ---

 छोड़ द्रुमों की मृदु छाया

तोड़ प्रकृति से भी माया,

बाले ते बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन? 

छोड़ अभी से इस जग को।

 सुमित्रा नंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। हिंदी कविता में प्रकृति को पहली बार प्रमुख विषय बनाने का काम पंत जी ने ही किया है।   
सुमित्रा नंदन   पंत जी के जन्म के छह: घंटे बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया था। उनकी आरम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई थी। सन् 1919 में वे प्रयाग आ गए।  उनकी आगे की शिक्षा म्योर सेन्ट्रल ब्लैकज में शुरू हुई। लेकिन महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर कालाज छोड़ दिया। चौथी कक्षा से ही वे छंद रचना करने लगे थे, लेकिन व्यवस्थित काव्य लेखन कालेज जीवन से करने लगे। उन्होंने सन् 1938 में रूपाभ नामक पत्रिका निकाली। सन् 1950 से 1957 तक वे आकाशवाणी के हिंदी परामर्शदाता रहे। 1977 में उनका देहावसन हो गया। साहित्यिक है ---- पंत जी प्रकृति, प्रेम और कल्पना के सुकुमार कवि हैं। उनके काव्य में छायावाद की सम्पूर्ण मौजूद हैं। उनके काव्य के तीन प्रमुख चरण हैं।पुरस्कार: उन्हें सोवियत भूमि का नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार आदि प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पहले चरण में उन्होंने प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम और कल्पना से ओत-प्रोत सुन्दर कविताएँ लिखी हैं। वे प्रकृति के दृढ़ चितेरे हैं। उन्होंने न केवल प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण किया है, अपितु उससे बहुत कुछ सीखा भी है। वे हंसमुख फूलों द्वारा जीवन को संदेश देते हुए कहते हैं, -

हंसमुख प्रसून सिखलाते हैं
पलभर में जो हंस पाओ।
अपने उर की सौरभ से
जग का आंगन भर जाओ।

  दूसरे चरण के अंतर्गत सुमित्रा नंदन पंत जी ने शोषण के खिलाफ समाजवादी रचनाएं लिखी हैं। जो कवि अब तक ताजमहल के रेशमी सौंदर्य की चकाचौंध में डूबा था, वह अब दोष ढूंढने लगा। वह दीन हीन आम जनता का हित चिंतक बन गया। 'सक्रिय' और 'वे आंखें' इसी युग की रचनाएँ हैं।


("मीराबाई के पद" कविता भी पढ़ें)    यहाँ क्लिक करें


तीसरे चरण में वे महर्षि अरविन्द की ओर मुड़ गए। इस बार जब तक वे आते हैं वे पूरी मानवता के हित चिंतन में लीन हो गए हैं। पंत जी शब्दों के अनुकूल शिल्पी हैं। अपने भाव के अनुकूल शब्द चयन में वे कलाकार का उपयोग करते हैं। संस्कृत शब्दावली के साथ साथ उपमा, रूपक, मानवीकरण अलंकारों का वे सुन्दर प्रयोग किया है। वास्तव में वे छायावादी कवि हैं।


https://youtu.be/hC5eFbkYdFs



        'वे  आंखें ' कविता और भावार्थ तथा              व्याख्या



अंधकार की गुहा सरीखी
उन आँखों से डरता मन है,
दूर तक उन्हें दारुणा
दैन्य दुख का नीरव रोदन!

सुमित्रा नंदन पंत जी कहते हैं, भारतीय किसान की आंखें मुझे एक अंधेरी गुफा के समान भयानक लगती हैं। जिस प्रकार अंधेरी गुफा के भीतर झांकने में डर लगता है, उसी प्रकार किसान की शून्य आँखों में देखने से भी डर लगता है, क्योंकि उन आंखों में भर, निराशा, शोषण, दर्द के अलावा कुछ नहीं है। उन आँखों में भयानक गरीबी के अलावे कुछ नहीं है। वे चुप चाप गरीबी की मार सहने को विवश हैं।

विशेष ---

1.कवि ने किसान की निराशा भरी आँखों का मार्मिक चित्रण किया है।
2'अंधकार की गुहा सरीखी 'में उपमा अलंकार है।
3. नारुण दैन्य दुख 'में अनुप्रास अलंकार है।

आँखों में ही घूमा करता

वह उसकी आँखों का तारा

कारकूनों की लाठी से जो

गया जवानी में ही मारा।

शब्दार्थ

आंखों का तारा--  बहुत प्यारा, कारकूनों -- सूदखोरों और जमींदारों के लठैत।
 
कवि सुमित्रानंदन पंत जी द्वारा रचित इन पंक्तियों में स्वतंत्रता के पहले की भारतीय किसान की दयनीय दशा का यथार्थ वर्णन किया गया है। महाजनों ने किसानों को खूब प्रतारित किया , क्योंकि उन्होंने उनसे ऋण लेकर पैसे वापस नहीं किए। यही नहीं, उनलोगो ने किसान के प्रिय पुत्र को पीट पीट कर मार डाला।
महाजनों और सूदखोरों के कारिंदों ने किसान के बेटे की निर्मम हत्या कर दी। वह भी उसके सामने। यह दुखद दृश्य आज भी उनकी आंखों के सामने नाचने लगती है।

बिना दवा दर्पण के घरनी

स्वर्ग चली, -- आंखें आती भर।

देख देख के बिना दुधमुंही

बिटिया दो दिन बाद गई मर।

शब्दार्थ


दवा दर्पण - दवा आदि। घरनी - पत्नी । स्वर्ग चली - मर चली 
 दुधमुंही -- दुधपीती 

भावार्थ

कवि सुमित्रानंदन पंत जी कहते हैं, किसान की पत्नी दवा के अभाव में ही मर गई। वह बेचारा गरीब किसान पत्नी का इलाज भी न करा पाया। यह सोच कर उसकी आंखें भर आईं।
पत्नी की असमय मृत्यु से उसकी दूधमुंही बच्ची भी समुचित देखभाल के अभाव में मर गई।


घर में विधवा रही पतोहु
लक्ष्मी थी , यद्यपि पति घातिन
पकड़ मंगवाया, कोतवाल ने
डूब कुएं में मरी एक दिन

शब्दार्थ

पतोहु - पुत्र वधू । लक्ष्मी -- लक्ष्मी के समान शुभ । पतिघातिन -- पति को मारने वाली । कोतवाल --थानेदार ।

भावार्थ

उस किसान के घर में उसकी पुत्रवधू ही शेष बची थी। हालांकि उसे पतिघातिन समझा जाता था, फिर भी वह उस घर की लक्ष्मी थी। उसे भी थानेदार ने अपनी हवस का शिकार बना दिया। परिणाम स्वरूप वह लज्जा के कारण  कुएं में कूदकर आत्म हत्या कर लिया । 

खैर पैर की जूती जोरू
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
सांप लोटते हटती जाती।

शब्दार्थ

पैर की जूती - उपेक्षित।  जोरू - पत्नी ।सुध -- याद । सांप लोटते -- जलन । फटती छाती -- बहुत दुःखी होना ।

भावार्थ

पत्नी पैर की जूती के बराबर है। वह मरी तो दूसरी आ जाती। लेकिन किसान को अपने इकलौते बेटे का मरना बहुत कष्ट देता है। मरे बेटे को याद करने से दुःख के मारे उसका कलेजा फट जाता है। दुख के मारे जीवन नर्क बन गया है।

पिछले सुख की स्मृति आंखों में
क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरंत शून्य में गड़ वह चितवन
तीखी नोंक सदृश बन जाती ।

शब्दार्थ

स्मृति - याद । तुरंत - जल्दी । शून्य --आकाश । चितवन - दृष्टि।

भावार्थ

किसान जब अपने बीते दिनों को याद करता है तो क्षण भर के लिए खुशी होती है। वह अपने घर,खेत, पत्नी, बेटे को याद कर खुश हो जाता है , लेकिन जब वह वर्तमान में देखता है तो उसकी नजरें शून्य में गड़ जाती हैं। एक एक करके सबकुछ समाप्त हो गया।

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