सूरदास के पद,Surdas ke pad,mero man anat khan


            सूरदास के पद, सूरदास का जीवन              परिचय

           Surdas ke pad, Surdas ka              Jiwan parichay


सूरदास के पद*************************************************

Table of contents

मेरे मन अनत कहां सुख पावै
खेलत में के काको गुसैया
सोभित कर नवनीत लिए
ऊधौ तुम हौ अति बड़भागी
मन की मन में माझ रही
हमारे हरि हारिल की लकरी
हरि हैं राजनीति पढ़
सूरदास का जीवन परिचय जन्म, मृत्यु, गुरु का नाम
प्रश्न उत्तर
भ्रमर गीत,
भावार्थ एवं व्याख्या
सूरदास और अकबर
सूरदास और अष्टछाप
कक्षा दसवीं हिन्दी

Surdas ke pad

Mero man anat kha
Khelat me ko kako
Sobhit kr navnit
Class tenth hindi NCERT solutions
Surdas
Bharmar geet
10th hindi

Date of birth of Surdas,place of birth Surdas
Death of Surdas, number of pad written by Surdas.
Guru of Surdas,
Language of Surdas, name of books written by Surdas. Is Surdas blind by birth. Gopiyon and udhaw.

Mero man anat khan sukh pawe

 मेरौ मन अनत कहां सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै।

कमल - नैन कौ छांड़ि महातम और देव कौं ध्यावै।

परम गंग को छांड़ि पियासौ , दुरमति कूप खनावै।

जिहिं मधुकर अंबूज रस चाख्यौ, क्यों करील फल भावै।

सूरदास प्रभु कामधेनु तजि , छेरी कौन दुहावै।।


भावार्थ एवं व्याख्या

महाकवि सूरदास श्री कृष्ण के अनन्य भक्त हैं। वे कहते हैं, मेरा मन श्री कृष्ण के अतिरिक्त कहीं और सुखी नहीं रह सकता। कभी  मन भटका भी तो फिर से थक हार कर श्री कृष्ण के पास ही लौट आता है। जैसे बीच समुद्र में जहाज़ का पंछी  यदि उड़कर किनारे जाना चाहता है, लेकिन किनारे नहीं मिलने पर पुनः लौट कर उसी जहाज पर शरण पाता है। वहीं हाल मेरा है। कमल नैन भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी और का ध्यान मैं क्यों करूं। पवित्र गंगा को छोड़ कर कुआं का पानी पीने वाले मूर्ख होता है। जो मधुकर कमल रस का पान कर लिया है वह करील जैसे करवा फल नहीं खाएगा। सूरदास जी कहते हैं कि कामधेनु को छोड़कर बकरी का दूध कौन लेगा। इसलिए मैं मेरा मन श्री कृष्ण के अलावा कहीं और देवताओं के पास नहीं जाता।

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खेलन में को काको गुसैयां।

हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैयां।

जाति -  पांति हम तें बड़ नाहिं , नाहीं बसत तुम्हारी छैया।

अति अधिकार जनावत यातें , अधिक तिहारै हैं कछु गैयां।

रुहठि करै तासौ को खेले, रहै बैठि जहं तहं सब ग्वैयां।

' सूरदास' प्रभु खेल्यौई चाहत, दाऊं दियो करि नंद दुहैयां।।


भावार्थ एवं व्याख्या


सूरदास जी कहते हैं, खेल में कोई बड़ा छोटा नहीं होता है। एक बार खेल में श्री कृष्ण हार गए और श्रीदामा जीत गए। अब लीजिए , श्री कृष्ण दांव नहीं देने की जिद करने लगे। सभी बाल सखा रूठ कर जहां तहां बैठ गये। खेल रूक गया।  बाल सखा कहने लगे , जाति में भी बड़
 नहीं है, न हम उनका दिया खाते हैं। बस कुछ गाएं हमसे ज्यादा है, उनके पास। तो क्या हम उनका धौंस सुनें। नहीं यह हमसे नहीं होगा। महाकवि सूरदास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण खेलना चाहते थे, इसलिए नंद बाबा की दुहाई देकर दांव दे दिया। यहां बाल मनोविज्ञान का सुन्दर वर्णन किया गया है।


सोभित कर नवनीत लिए।

घुटुरन चलत रेणु तन मंडित, मुखदधि लेप किए।

चारु कपोल लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए।

लट - लटकनि मनु , मत्त मधुप गन, मादक मधुहिं पिये।

कठुला कंठ वज्र केहरि नख, राजत रुचिर हिये।

धन्य सूर ' एकौ पल या सुख, का सतकल्प जिये।


भावार्थ एवं व्याख्या

सूरदास जी वात्सल्य वर्णन के अद्वितीय कवि हैं। बाल श्री कृष्ण के रूप वर्णन, हाव भाव, चेष्टाएं आदि का जैसा सुन्दर वर्णन सूर ने किया है वैसा किसी अन्य कवि नहीं कर पाए। यहां उसी का उदाहरण देखिए।
बाल कृष्ण हाथ में मक्खन लिए हैं।  बहुत सुंदर लगते हैं। घुटने के बल चल रहे हैं शरीर पर धूल लगा हुआ है और मुख में दधि का लेप है। सुंदर मुख बड़ी बड़ी आंखें और माथे पर तिलक उनकी शोभा बढ़ा रही है। मुख पर घुंघराले केश लटके हुए हैं जैसे कमल के फूल पर काले काले भवरे मडरा रहे हो। उनके गले में सिंह के नख का ताबीज है। महाकवि सूरदास जी कहते हैं कि ऐसे मनोहर छवि एक पल देखने के बाद सत कल्प जीने की कोई मनोकामना नहीं रहती।    

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।

पुरइनि पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी।

ज्यौं जल मांह तेल गागरि, बूंद  न ताकौं लागी।

प्रीति नदी में पाऊं न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।

'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चांटी ज्यौं पागी।।

कहानी पढ़ें

भावार्थ एवं व्याख्या


श्री कृष्णा ने मथुरा से उद्धव को ब्रज में गोपियों को समझाने के लिए भेजा था। उद्धव निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक थे, इसलिए गोपियां व्यंग्य से उन्हें भाग्यशाली कहती हैं।  वे कहती हैं कि हे उद्धव जी आप बड़े भाग्यशाली हैं जो कृष्ण के प्रेम में नहीं पड़े। आप तो कमल के पत्ते के समान है जो जल में रहकर भी नहीं भिगता। ऐसे चिकने घड़े के समान है जिसपर जल की बूंदें नहीं ठहरती। अच्छा है, आपने प्रेम की नदी में पैर नहीं डूबोया। हम तो कृष्ण के प्रेम में ऐसे फंसे हैं जैसे गुड़ में चींटियां फंस जाती हैं।

मन की मन ही मांझ रही।

कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कहीं।

अवधि आधार आस आवन की, तन मन विथा सही।

अब इन जोग संदेसनि सुनि सुनि , बिरहिनि विरह दही।

चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तै,उत तैं धार बही।

' सूरदास' अब धीर धरहिं क्यौं , मरजादा न लही।।


भावार्थ एवं व्याख्या

महाकवि सूरदास जी ने इस पद में गोपियों की व्यथा का वर्णन किया है। गोपियां उद्धव से कहते हैं की उनकी इच्छाएं मन में ही रह गई । वे अपनी व्यथा किसी से कह नहीं सकती। उनके मन में यह आशा थी की श्री कृष्ण लौट आएंगे लेकिन अब वह आशा भी समाप्त हो गई। उद्धव के योग संदेश को सुनकर गोपियों की व्यथा और बढ़ गई। गोपिया कहते हैं की जब कृष्ण ने अपनी मर्यादा का पालन नहीं किया तो हम क्यों करें?



हमारैं हरि हारिल की लकरी।

मन क्रम वचन नंद -  नंदन उर, यह दृढ़ करी पकरी।

जागत - सोवत स्वप्न दिवस - निसि , कान्ह - कान्ह जकरी।

सुनत जोग लागत है ऐसो, ज्यौं करुई ककरी।

सु तौ ब्याधि हमकौं लैं आए, देखी सुनी न करी।

यह तौ ' सूर' तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।

भावार्थ एवं व्याख्या


गोपियां उद्धव से कहती हैं कि कृष्ण को हमने उसी प्रकार पकड़ रखा है जैसे हारिल पक्षी लकड़ी पकड़े रहता है। मन क्रम वचन से हमने कृष्ण को पकड़ लिया है। हम हर समय उनके ध्यान में ही रहती हैं। योग की बातें हमारे लिए कड़वी ककड़ी के समान है। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियां उद्धव से कहती हैं कि योग की शिक्षा उन लोगों को दो जिनका मन चंचल है। हम तो कृष्ण के प्रति निष्ठावान हैं।



हरि हैं राजनीति पढ़ आए।

समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।

इक अति चतुर हुते पहिलैं ही , अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।

बड़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग संदेस पठाए।

ऊधौ, भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाएं।

अब अपनै मन फेर पाइहैं , चलत जु हुते चुराए।

ते क्यों अनीति करैं आपनु, जे और अनीति छुराए।

राज धरम तौ यहै ' सूर' , जो प्रजा न जाहि सताए।


भावार्थ एवं व्याख्या

इस पद में उद्धव को भ्रमर बताते हुए गोपिया कहती हैं कि अब कृष्ण ने राजनीति सीख ली है। अब उद्धव से बात कर उन्हें कृष्ण के सारे समाचार मिल गए हैं। एक तो वे पहले ही चतुर थे अब तो अपने गुरु से शिक्षा भी मिल गई है। उनकी बुद्धि अधिक हो गई है। तब तो उन्होंने योग का संदेश भिजवाया है। हे उद्धव, पहले के लोग भले थे जो दूसरों के हित के लिए दौड़ कर आते थे। चलते समय श्री कृष्ण जो हमारा हृदय चुरा कर ले गए थे, अब उनके मन में बदलाव आ गया है। अब वे अन्याय कर रहे हैं जो स्वयं दूसरों को अन्याय से बचाते थे। सूरदास जी कहते हैं कि प्रजा की रक्षा करना है राजा का धर्म होता है।


सूरदास का जीवन परिचय


सूरदास हिंदी साहित्य के चमकते सूर्य के समान हैं। इनका जन्म मथुरा के समीप रुनकता अथवा रेणुका क्षेत्र में 1478 ई में हुआ था। इनकी पारिवारिक स्थिति के बारे में जानकारी नहीं मिलती। माता पिता अथवा परिवार के अन्य सदस्यों के विषय में जानकारी नहीं है।  सूरदास जी जन्म से अंधा थे। ये विवाद का विषय बना हुआ है। इनके गुरु बल्लभाचार्य थे।

सूरदास जी ने श्रीकृष्ण से संबंधित सवा लाख पदों की रचना की है। लेकिन अभी केवल चार पांच हजार पद ही मिलते हैं। 105 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु 1583 ई में हुई। सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी में उनके रचित पद संग्रहित हैं। 
इनके पदों की भाषा ब्रजभाषा है। वात्सल्य और श्रृंगार के ये सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनके पदों में उपमा, रूपक, उतप्रेक्षा, वक्रोकति अलंकारों की छटा देखते बनती है।

सूरदास और अकबर

सूरदास जी अकबर के समकालीन थे। सूरदास जी की ख्याति सुनकर अकबर तानसेन के माध्यम से उनसे मथुरा में मिला था। उसने सूरदास जी से अपने बारे में कुछ गाने को कहा। सूरदास जी ने ' नाहिंन रह्यौ मन में ठौर,नंद नन्दन अक्षत कैसे आनिए उर और ।' कहकर अकबर को निराश कर दिया। अकबर समझ गया कि हिन्दू संतों पर हमारी दाल नहीं गलने वाली है।

सूरदास और अष्टछाप

श्री वल्लभाचार्य जी ने जिन पुष्टिमार्गीय भक्ति सम्प्रदाय की स्थापना की , उसका जिन हिन्दी भक्त कवियों ने पल्लवन किया उन्हें अष्टछाप के कवि कहते हैं। इनमें चार वल्लभाचार्य जी के शिष्य और चार विट्ठल नाथ जी के शिष्य थे। सूरदास जी इसके प्रमुख भक्त कवि थे।

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1.कवि सूरदास जी का मन कहीं और क्यों नहीं सुख पाता है ?

उत्तर - कवि सूरदास जी श्री कृष्ण के अनन्य भक्त हैं। जिन्हें श्री कृष्ण जैसे सर्वश्रेष्ठ देव की भक्ति मिल गई है उन्हें किसी अन्य की क्या जरूरत है। सभी देवी-देवता तो उन्हीं की भक्ति में लीन रहते हैं। जैसे पवित्र गंगा का जल सुलभ हो वह किसी कुएं का जल भला अच्छा लगेगा। इसलिए सूरदास जी श्री कृष्ण को छोड़कर किसी देवता के पास नहीं जाते।

2. खेल में सभी साथी श्री कृष्ण से क्यों रूढ़ गये ?

उत्तर - श्री कृष्ण खेल में हार गए।वे दांव नहीं दे रहे थे। इसलिए सभी साथी रूठ कर जहां तहां बैठ गये।

3. खेल में कोई बड़ा छोटा होता है ?

उत्तर - नहीं। खेल में सभी बराबर है।

4.उद्धव कौन थें ?

उत्तर - उद्धव श्री कृष्ण के चाचा देवभाग के पुत्र थे।

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1.गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में क्या व्यंग्य निहित है ?

उत्तर - गोपियां उद्धव को अति बडभागी अर्थात भाग्यवान कहती हैं। इसमें व्यंग्य है। उद्धव श्री कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम से वंचित रह गए। वे कृष्ण प्रेम के बंधन में नहीं पड़े। वे इस प्रेम में पड़े होते तो उनकी दशा भी गोपियों जैसी होती। चलिए अच्छा ही है। गोपियां व्यंग्य से उद्धव की निंदा कर रही हैं।

2. उद्धव के व्यवहार की तुलना किस-किस से की गई है?

उत्तर - उद्धव के व्यवहार की तुलना दो चीजों से की गई है। पहला कमल के पत्ते से जो जल के ऊपर रहकर भी जल के प्रभाव में नहीं आता उसी तरह उद्धव कृष्ण के पास रहकर भी उनसे प्रेम नहीं कर सके। दूसरा बुध की दशा उस तेल के गागर के समान है जो जल में रहती हैं लेकिन उस पर जल की बूंदे ठहर नहीं पाती। 

 3. गोपियां ने किन किन माध्यम से उद्धव को उलाहना दी हैं ?

उत्तर - गोपियों ने कमल के पत्ते , तेल की मटकी और प्रेम नदी के माध्यम से उद्धव को उलाहने दिए हैं।

4. उद्धव के दिए  योग संदेश ने गोपियों की बिरह अग्नि में घी का काम कैसे किया ?

उत्तर - गोपियां तो पहले से ही बिरहा की अग्नि में जल रही थी । वह कृष्ण वियोग की पीड़ा झेल रही थी । उन्हें आशा थी कि कृष्ण जल्दी लौट आएंगे,  लेकिन उनके स्थान पर उद्धव योग का संदेश लेकर आ गए। गोपियों पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हुई । योग संदेश ने उनकी विरह की अग्नि को और तेज कर दिया।  वे और दुखी हो गई।

5. ' मरजादा न लही ' के माध्यम से कौन सी मर्यादा न रहने की बात की जा रही है ?

उत्तर - अभी तक गोपियां मर्यादा का पालन करते हुए चुपचाप कृष्ण वियोग की पीड़ा को झेल रही थी । अब जबकि कृष्ण ने उद्धव के माध्यम से योग का संदेश भिजवा दिया है तब सारी मर्यादा समाप्त हो गई है। भला किस मर्यादा का पालन करें । अब उनकी सारी मर्यादा और मान समाप्त हो गई। 

6. कृष्ण के प्रति गोपियां अपने अनन्य प्रेम को किस प्रकार व्यक्त किया है ?

उत्तर - गोपियों ने कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को कई प्रकार से प्रकट किया है। कभी वह स्वयं को कृष्ण के प्रेम रूपी चीटियां बताती है तो कभी कृष्ण को हारिल की लकड़ी कहती हैं। कभी कभी कहती हैं कि वह दिन रात कृष्ण कृष्ण का रट लगाए रहती हैं।

7.गोपियो ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है ?

उत्तर - गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा उन लोगों को देने की बात कही है जिनके मन चकरी के समान घूमते रहते हैं। उनके मन स्थिर नहीं है। योग मन को स्थिर करता है। गोपियों  के मन तो पहले से ही श्री कृष्ण के प्रति स्थिर हैं । अतः उन्हें योग की आवश्यकता नहीं है।

8. पद के आधार पर गोपियों का योग साधना के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट करें।

उत्तर - इस पद के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गोपियां योग साधना को बेकार समझती हैं। उनके अनुसार योग साधना कड़वी ककड़ी के समान नीरस है जिसे निकल पाना कठिन है। यह  अव्यवहारिक है। योग मन को एकाग्र करने के लिए उपयोगी हो सकता है लेकिन उनका मन तो पहले से ही कृष्ण के प्रति एकाग्र चित्त है। गोपियां योग को एक व्याधि बताते हैं।

9. गोपियों के अनुसार राजा का क्या धर्म होना चाहिए ?

उत्तर - गोपियों के अनुसार राजा का धर्म होना चाहिए कि वह प्रजा को कभी नहीं सताए और उनकी भलाई करें। राजा अपनी प्रजा को अन्याय से बचाए।

10. गोपियों को कृष्ण में ऐसे कौन से परिवर्तन दिखाई दिए जिनके कारण वे अपना मन वापस पा लेने की बात कहती हैं?

उत्तर - गोपियों को कृष्ण में ये परिवर्तन दिखाई दिए - 
अब कृष्ण भोले भाले न रहकर राजनीतिज्ञ बन गए हैं। वे बहुत सारे ग्रंथ पढ़कर विद्वान बन गए हैं । अब वह प्रेम के स्थान पर योग का संदेशा भिजवाते हैं।  वह अन्याय और अनीति करके राज धर्म की उपेक्षा करने लगे हैं।


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