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लोहे का स्वाद



लोहे का स्वाद , कविता

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" शब्द किस तरह

कविता बनते हैं

इसे देखो

अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ो

क्या तुमने सुना कि यह

लोहे की आवाज है या

मिट्टी में गिरे हुए ख़ून

का रंग।"

लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो

जिसके मुंह में लगाम है।

-----  सुदामा पांडेय ' धूमिल '


भावार्थ 

अधिकांश कविताऐं उन दबे कुचले, पीड़ित शोषित जनों को केन्द्र में रखकर लिखी जाती है जिनपर कोई ध्यान नहीं देता। उन दलित पीड़ित परिवारों की ओर देखो। कानून और नियम बनाने वाले क्या जाने , उसके पालन और क्रियान्वयन करने वाले पर क्या गुजरती है। जिस तरह उस घोड़े से पूछो कि लोहा का स्वाद कैसा होता है जिसके मुंह में लगाम है। लगाम बनाने वाले लोहार क्या जाने लोहे का स्वाद ? वह तो दूसरे के लिए लगाम बनाने का काम किया है।

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